लोकसभा चुनाव और भारतीय संविधान

हामिद अली ख़ान और ख़ुरशीद आलम

सोलहवीं लोकसभा के लिए हो रहे आम चुनावों ने भारत के लोकतन्त्र के भविष्य के लिए कई सवाल खड़े किए हैं। इन चुनावों के लिए किए जा रहे प्रचार के दौरान मीडिया के ज़रिये पैसे और शक्ति प्रदर्शन का नंगा नाच देखने को मिल रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के न्यूज़ चैनलों में आपस में यह होड़ लगी हुई है कि बी॰जे॰पी॰ के प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को ज़्यादा से ज़्यादा स्क्रीन पर दिखाया जाये। यही नहीं, चैनलों पर ओपीनियन पोल प्रसारित किए जा रहे हैं, जिनमें एक मत से यह कहा जा रहा है कि पोल सर्वे अकेली भारतीय जनता पार्टी को 225-230 से ज़्यादा सीटें मिल रही हैं। यही हाल न्यूज़ चैनलों पर प्रायोजित चर्चाओं का है जहाँ बी॰जे॰पी॰ के लोग दूसरों पर हावी होकर अपनी बात मनवाने पर अड़ जाते हैं। इन चर्चाओं में देश के सामने पेश तमाम अहम मसलों का पूरी तरह अभाव है। अब चूँकि चैनलों पर ऐंकरों का रवैया भी बी॰जे॰पी॰ से हमदर्दी का है, या यूँ कहें कि कार्पोरेट घरानों द्वारा नियन्त्रित इन चैनलों से कहा गया है कि ‘‘बी॰जे॰पी॰ को जिताना है, इसलिए चर्चा को हाईजैक कर लो’’, की भी चर्चा हो। नरेन्द्र मोदी की शान में क़सीदा पढ़ने वाले ये चैनल निष्पक्षता और निर्भीकता के आचरण को पूरी तरह दर किनार कर चुके हैं। यही ऐसा मौक़ा था कि मीडिया बुनियादी उसूलों का पालन कर जनतन्त्र का चैथा स्तंभ होने का हक़ अदा करता। न्यूज़ चैनलों के मौजूदा रवैये से ऐसा लगता है कि हम एक फासीवादी देश में जी रहे हैं, जहाँ मीडिया का नियन्त्रण मुसोलिनी के हाथ में है। ऐसे निराशाजनक माहौल में सीनियर पत्रकार कमर वहीद, नकवी का इण्डिया टी॰वी॰ के एडीटोरियल डायरेक्टर के पद से नरेन्द्र मोदी के प्रायोजित इण्टरव्यू के विरोध में इस्तीफ़ा देना न्यूज़ चैनलों की गैरजानिबदारी पर सवालिया निशान खड़ा करता है। इससे तो यही लगता है कि इण्टरव्यू लेने वाले के सवाल और मोदी के जवाब वही हैं, जो मोदी चाहते है। इसका मतलब यह हुआ कि मीडिया अपने सिद्धान्तों से समझौता कर रहा है और दर्शकों पर उसी तरह मनोवैज्ञानिक दबाव बना रहा है, जैसा हिटलर ने 1932 में जर्मनी और उसके आस-पास के देशों के लोगों पर बनाया था।

इस बार आर॰एस॰एस॰ ने देश को भगवाकरण के रंग में रंगने की पूरी तैयारी कर रखी है। वह 1929 से इस अवसर का इन्तेज़ार कर रहा था कि किस तरह भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर यहाँ के अल्पसंख्यकों, ख़ासतौर पर मुसलमानों और दलितों व दूसरे पसमाँदा तबको को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाया जाये। अपने लक्ष्य को पाने के लिए आर॰एस॰एस॰ ने पहले दंगों का सहारा लिया और फिर उस अवसर का इन्तेज़ार किया जब कमज़ोर सरकार सत्ता में हो। आखि़रकार उसे यू॰पी॰ए॰ सरकार के दूसरे कार्यकाल में यह मौक़ा मिल ही गया। इससे पहले भी 1999 में उसे यह मौक़ा मिला था, लेकिन बी॰जे॰पी॰ सरकार का कार्यकाल अत्यन्त अल्प होने के कारण आर॰एस॰एस॰ को अपने एजेन्डा लागू करने का वक़्त ही नहीं मिल पाया। आर॰एस॰एस॰ ने जे॰पी॰ आन्दोलन में हिस्सा लेकर अपने को सेक्यूलर दिखाने की कोशिश तो की, लेकिन इमरजेन्सी के बाद 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार में दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर सरकार गिर गयी। जनता पार्टी में शामिल उस समय के जनसंघ के मन्त्री सरकार क़ुर्बान करने के लिए राज़ी हो गए पर आर॰एस॰एस॰ की सदस्यता छोड़ना उन्हें गवारा न हुआ। 1999 में बी॰जे॰पी॰ के नेतृत्व में बनी एन॰डी॰ए॰ सरकार में सेक्यूलर सोच की पार्टियाँ भी शामिल हुयीं, लेकिन गृह; मानव संसाधन विकास तथा संस्कृति जैसे अन्य विभागों पर कब्ज़ा बी॰जे॰पी॰ के आर॰एस॰एस पृष्ठ भूमि के मन्त्रियों का रहा जिन्होंने उन विभागों में आर॰एस॰एस॰ से हमदर्दी रखने वाले अधिकारियों को तैनात किया, जो बाद में खुलकर सामने आ गए। आर॰ के॰ सिंह, जनरल वी॰ के॰ सिंह और ऐसे ही कई आई॰ए॰एस॰ और आई॰पी॰एस॰ अफ़सर जो या तो इस्तीफ़ा देकर भाजपा में शामिल हो गए या रिटायरमेन्ट के बाद बी॰जे॰पी॰ की सदस्यता ग्रहण की। इन अधिकारियों का यह कहना कि वे भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए पार्टी से जुड़े हैं बिल्कुल ग़लत है। वे आर॰एस॰एस॰ की मानसिकता के लोग हैं, जो उसे अपना एजेन्डा लागू करने में मदद के लिए बी॰जे॰पी॰ में आए हैं। इससे पहले भी रिटायर होने के बाद श्रीश चन्द्र दीक्षित, बी॰पी॰ सिंघल, जगमोहन जैसे लोग संघ के सहायक संगठनों से जुड़ गए थे।

आर॰एस॰एस॰ ने बड़ी चालाकी से नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री पद के लिए इस आशय से आगे किया, ताकि एक तरफ़ गुजरात माॅडल की देश में इस तरह मार्केटिंग की जाये कि मानो पूरे देश में या किसी भी सूबे में विकास का कोई काम ही नहीं हुआ और दूसरी तरफ़ देश की सबसे बड़ी आबादी, ओ॰बी॰सी॰ को यह विश्वास दिलाना कि मोदी ओ॰बी॰सी॰ हैं और उनके प्रधानमन्त्री बनने से इन जातियों का गौरव बढ़ेगा। लेकिन हक़ीक़त कुछ और है। मोदी को आगे करके आर॰एस॰एस॰ उनकी तानाशाह की द्रवि को सार्वजनिक करके समाज के कई वर्गों को यह सन्देश देना चाहता है कि अब उनकी ख़ैर नहीं है। आर॰एस॰एस॰ चूँकि विशुद्ध रूप से हिन्दू संगठन है और वर्ण व्यवस्था का पोषक है, उसे ब्राहमणवाद को ही आगे बढ़ाने के एजेन्डे पर काम करना है। लोकसभा चुनावों के बाद अगर केन्द्र में बी॰जे॰पी॰ की सरकार बनती है तो इन्सानियत और इन्साफ़ का गला पूरी तरह घोंट दिया जाएगा। गुजरात में हुए 2002 के दंगों में जिन ईमानदार और न्यायप्रिय प्रशासनिक तथा पुलिस अधिकरियों ने सच्चाई बयान की तो उन्हें किनारे लगाने के लिए मोदी सरकार ने हर कोशिश की। उनमें से कुछ लोग जेल में हैं और कुछ को सस्पेंड कर दिया गया है। ऐसी हालत कोई अफ़सर मोदी के कारनामों को उजागर करने की हिम्मत नहीं जुटा सकता। मोदी के सत्ता में आने के बाद देश का सेक्यूलर ताना-बाना बिखर जाएगा। इसके बिखरने से सबसे ज़्यादा नुक़सान यहाँ के अल्पसंख्यकों को होना तय है। भारत के संविधान और न्यायपालिका के ताने-बाने की बदौलत सबको एक जैसे अधिकार मिले हुए हैं। पहले भी भारतीय संविधान का मूल ढाँचे को बदलने की जब जब कोशिशें हुयी है, हमारी न्यायपालिका जिसे, न्यायायिक समीक्षा का अधिकार दिया गया है, आगे आयी है। सुप्रीम कोर्ट अपने फ़ैसले में यह कह चुकी है कि संविधान के बुनियादी ढाँचे को, जिसमें यहाँ के नागरिकों को मूल अधिकार दिए गए हैं, बदला नहीं जा सकता। देश के नागरिकों ख़ास तौर से अल्पसंख्यकों का आखि़री सहारा संविधान ही रहा है। संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों से ही यहाँ के अल्पसंख्यक भी अपने को बराबर का नागरिक समझते हैं। इन्हीं अधिकारों के कारण वे सार्वजनिक रूप से समस्याएँ उठाते रहते हैं और सरकार से उनके हल की माँग करते रहते हैं। लेकिन मोदी के आने के बाद संविधान को बदलने का ख़तरा और बढ़ जाएगा, क्योंकि आर॰एस॰एस॰ का एजेन्डा भारत के खण्ड हिन्दू राष्ट्र क़ायम करने का सपना है, जो उसे पूरा होता दिखाई दे रहा है। हिन्दू राष्ट्र की अवधारण भारत जैसे बहु-धर्म और बहु-समाज वाले देश के लिए बहुत नुक़सानदेह है। सेक्यूलरवाद देश की जान है जिस पर विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों का अस्तित्व टिका हुआ है।

नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने से यहाँ के क़ानून और अदालत पर भरोसा करने वाले अल्पसंख्यक वर्ग के नेता सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगे। उन्हें अल्पसंख्यकों की जायज़ मांगों के लिए गिरफ़्तार कर लिया जाएगा और झूठे मामलों में फंसा कर उन्हें मानसिक यातनाएँ दी जाएँगी। इसका उद्देश्य होगा उन्हें अपमानित कर उनका मनोबल तोड़ना, ताकि वे अल्पसंख्यकों की समस्याएँ उठाने से बाज़ रहें। इससे अल्पसंख्यों में डर बैठ जाएगा और वे अपने जायज़ हक़ के लिए आवाज़ नहीं उठा सकेंगे। यही हाल दलितों और समाज के दूसरे कमज़ोर वर्गों का होगा। इनके नेताओं के साथ ज़्यादतियाँ की जाएगी ताकि वे संविधान द्वारा दी गई सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक सुरक्षा से वंचित हो जाएँ। आज दलित जो भी लाभ और सुविधाएँ पा रहे हैं, वह किसी की मेहरबानी नहीं, बल्कि उन्हें संविधान द्वारा उसकी गारंटी दी गई है। मोदी अपनी काबीना में अपनी ही पार्टी के ऐसे लोगों को जगह नहीं देंगे, जिनमें थोड़ी सी भी मानवता बची है। संविधान बदलने के मामले में बी॰जे॰पी॰ गठबन्धन की पार्टियाँ भी इसलिए सामने नहीं आएँगी कि उनके सांसदों की संख्या बहुत कम होगी। इस समय चुनाव प्रचार बी॰जे॰पी॰ नहीं, बल्कि नरेन्द्र मोदी के इर्द-गिर्द घूम रहा है। चुनाव में यह नहीं कहा जा रहा है कि ‘‘अब की बार बी॰जे॰पी॰ सरकार’’, बल्कि ‘‘अब की बार मोदी सरकार’’ का नारा लगाया जा रहा है। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि देश में संसदीय प्रणाली समाप्त का अध्यक्षात्मक प्रणाली लागू की जाएगी, जिसके तहत राष्ट्रपति ही सबसे ताक़तवर होता है और वह संसद के प्रति जवाबदेह भी नहीं होता। भारत जैसे बड़े देश के लिए यह प्रणाली ठीक नहीं है, क्योंकि वर्तमान संसदीय प्रणाली में सरकार के तीनों अंगों-कार्यपालिक, विधानपालिका तथा न्यायपालिक एक दूसरे को संतुलित करते हैं। अध्यक्षात्मक प्रणाली में राष्ट्रपति अपनी पसंद के लोगों को मन्त्री बनाता है, जो किसी सदन का सदस्य नहीं होता और इसीलिए वह संसद के प्रति जवाबदेह भी नहीं है।

संविधान बदलने की बी॰जे॰पी॰ की नीयत उसी समय सार्वजनिक हो गई थी जब पहली बार 19 दिनों के लिए अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में उसकी सरकार बनी थी। उस अल्पमत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सेवा-निवृत्त - न्यायाधीश श्री वेंकट चलैया की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया था, जिसे संविधान की समीक्षा करने की जि़म्मेदारी दी गई थी। लेकिन अल्पमत होने के कारण सरकार गिर गई थी, इसलिए इसे भी तब तक के लिए ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया जब तक कि बी॰जे॰पी॰ अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में न आ जायें। अब नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने की सम्भावनाओं के बीच आर॰एस॰एस॰ फिर कोशिश करेगा कि समीक्षा के नाम पर संविधान बदल दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट के कई फ़ैसलों के बावजूद कि संविधान का बुनियादी ढाँचा जिसमें प्रिएम्बल (प्रस्तावना) और मूल अधिकार शामिल हैं, को नहीं बदला जा सकता, आर॰एस॰एस॰ के इशारे पर बी॰जे॰पी॰ सरकार उसे बदलने के लिए यह दलील दे सकती हैं कि 65 साल में देश में बहुत कुछ बदल गया है और संविधान को भी आज की परिस्थियों के अनुसार बदला जाये। साथ ही वह भी कोशिश करेगी कि न्यायपालिका में आर॰एस॰एस॰ सोच के लोगों को रखा जाये, ताकि अदालती रुकावट भी दूर हो सके। ग़ौरतलब है कि राजस्थान हाई कोर्ट के न्यायाधीश, श्री गुमान मल तोढ़ा का सम्बन्ध आर॰एस॰एस॰ से था और रिटायरमेन्ट के बाद वह राम जन्मभूमि आन्दोलन से जुड़ गये थे। इसी तरह इलाहाबाद हाई कोर्ट के रिटायरशुदा जज श्री देवकीनन्दन अग्रवाल राम जन्मभूमि न्यायस के अध्यक्ष थे और उन्होंने ने ही ‘‘रामलला विराजमान’’ नाम से अदालत में मुक़दमा दाखि़ल कर रखा था।

संविधान बदलने से एक तरफ़ जहाँ आर॰एस॰एस॰ यहाँ के अल्पसंख्यकों, ख़ासतौर पर मुसलमानों को दिए गए बराबरी के अधिकार छीन लिए जाएँगे और जैसा कि बी॰जे॰पी॰ नेता डॉ. सुब्रह्मण्यन स्वामी कहते है, मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना कर उनसे वोट देने का अधिकार छीन लिया जाएगा, ताकि वे देश की मुख्य धारा से बिल्कुल कट जाएँ। इसी तरह डॉ. भीमराव अम्बेडकर की कोशिशों से अनुसूचित जाति / जनजाति के लोगों को नौकरियों, शिक्षण संस्थाओं और विधानपालिका में दिया गया आरक्षण भी ख़त्म कर दिया जाएगा, ताकि वे फिर सदियों पुरानी हालत में पहुँच जाएँ। आर॰एस॰एस॰ मनुस्मृति के अनुसार ब्राहमणवाद को आगे बढ़ाएगा, ताकि देश में वर्णव्यवस्था दोबारा लागू हो और ‘शूद्र’ हमेशा उनके रहमोकरम पर अपनी जि़न्दगी गुज़ारने को मजबूर हो जाएँ। ऐसी हालत में मुसलमानों और दलितों तथा समाज के दबे-कुचले लोगों के सर पर मंडरा रहे ख़तरे को पहचानते हुए उसे रोकने के लिए एक होकर लड़ना होगा।

नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने पर पड़ोसी देशों से भी सम्बन्ध ख़राब होंगे, क्योंकि मोदी अपने बयानों में उन्हें सबक़ सिखाने की धमकी दे चुके हैं। सेक्यूलर पार्टियों पर मुसलमानों के तुष्टीकरण का आरोप लगाकर, मुसलमानों को जि़न्दा रहने लायक़ भी छोड़ा नहीं जाएगा। ऊपर से यह इल्ज़ाम लगाया जाएगा कि चूँकि आतंकवादियों का सम्बन्ध मुसलमानों से है, इसलिए उन्हें सबक़ सिखाना ज़रूरी है। मुसलमानों से बदला लेने की भावना से पूरे देश में शक का माहौल पैदा हो जाएगा, जिससे विभिन्न जाति-बिरादरी के लोग एक दूसरे को शंका की दृष्टि से देखेंगे। इससे देश में अस्थिरता का माहौल पैदा होगा, जिससे फ़ायदा उठाकर हमारा पड़ोसी देश चीन कुछ न कुछ हरकत कर सकता है। वैसे भी वह थोड़े-थोड़े अन्तराल पर हमारी सीमाओं से छेड़-छाड़ करता ही रहता है। आर॰एस॰एस॰ का दर्शन कभी छोटी जातियों के वर्चस्व को स्वीकार नहीं कर सकता। गुजरात में 2002 में हुए मुसलमानों के कत्लेआम के बाद ब्राहमणवादी सेाच ने मोदी को हिन्दुत्व का हीरो बना दिया है। इस काम में यहूदी लाबी भी अपनी कारोबारी कम्पनियों के माध्यम से बहुत सक्रिय है। कार्पोरेट घराने मोदी की भरपूर मदद कर रहे हैं। अगर सत्ता में आने के बाद मोदी अपने हिसाब से काम करेंगे और आर॰एस॰एस॰ के दबाव में नहीं आएँगे तो आर॰एस॰एस॰ की सारी योजना धराशायी हो जाएगी। ऐसी हालत में ख़तरा यह भी है कि मोदी एक तानाशाह बन कर उभरें। अगर ऐसा हुआ तो हिटलर की आत्मा बहुत ख़ुश होगी, कि उसे एक शागिर्द मिल गया।


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