बी.जे.पी. सरकार का दो वर्षः असहिष्णुता से सबका विकास तक

- डाॅ॰ मो॰ मन्जू़र आलम

केन्द्र में सत्तारुढ़ बी.जे.पी. के नेतृत्व वाली एन॰डी॰ए॰ सरकार ने अपने अस्तित्व के दो वर्ष पूरे कर लिए हैं इस अवसर पर विभिन्न विभागों की ओर से अपनी प्रगति को पेश कर यह बताने की कोशिश हो रही है कि सरकार ने क्या कुछ किया। भारतीय संविधान के दायरे में रहते हुए सरकार की करकर्दगी को अगर देखा जाये तो निश्चित रुप से किसी हद तक तस्वीर साफ हो जाती है और सरकार का दृष्टिकोण भी सामने आ जाता है। यह इसलिये भी ज़रूरी है कि यह सरकार संविधान के तहत ही अस्तित्व में आयी है और उसके मंत्रियों ने भी इसी संविधान की शपथ लेते हुए उसकी रक्षा का विश्वास दिलाया है।

दो वर्षों के दौरान जहाँ असहिष्णुता का मामला छाया रहा, वहीं मुसलमानों से भेद-भाव का सिलसिला भी जारी रहा यहाँ तक कि कानून एवं व्यवस्था की स्थिति भी काफी खराब रही और दोषी बेरोक-टोक घूमते रहे, क्योंकि उन्हें कानून का कोई डर नहीं था, जबकि निर्दोषों पर कानून का घेरा तंग होता गया। चुनावों के समय जो वायदे किए गए थे वे पूरे नहीं हुए। अच्छे दिन उनके लिए आए, जिन्होंने इस देश को लूटकर अपनी तिजोरियाँ भरीं जिसके फलस्वरूप बैंकों की माली हालत काफी खराब हो गयी और देश की आर्थिक दर बढ़ने के बजाय घटने लगी। स्वास्थ्य और शिक्षा सहित सभी सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं के बजट में कटौती कर दी गयी। एसोचेम की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार कई उद्योगों में नौकरियों में कमी दिखाई दी है, जिसके कारण बेरोजग़ारी बढ़ी और गरीबी में बढ़ोत्तरी हुयी। रही सही कसर मंहगाई ने पूरी कर दी। इस दृष्टिकोण से सरकार की दो साल की कारकर्दगी को किसी तरह से कामयाब करार नहीं दिया जा सकता और ’सबका साथ-सबका विकास’ का नारा मात्र एक राजनीतिक हथकण्डा बनकर रह गया, जिसके द्वारा सबके विकास की बात तो कही गयी, लेकिन उसका लाभ सिर्फ ब्राहमणवादी लाॅबी को ही हुआ।

संविधान का प्राक्कथन पाँच बुनियादी बिन्दुओं पर आधारित है। ये बिन्दु हैं न्याय, आज़ादी, समानता, भाईचारा, सेक्यूलरवाद। इसके तहत संविधान ने हमारी सामाजिक व्यवस्था को उजागर किया है। अनेकता में एकता का दर्शन तभी सही साबित हो सकता है, जब प्राक्कथन के पाँचों बिन्दुओं पर अमल किया जाये। चूँकि यह काम सरकार की जिम्मेदारियों में शामिल है, अतः यह उम्मीद की जाती है कि जो भी सरकार सत्ता में रहेगी वह इस पर अमल करके भारतीय संविधान को मजबूत करेगी, क्योंकि इसी आधार पर उसने सत्ता हासिल की है। इस दृष्टिकोण से जब हम केन्द्र सरकार की कारकर्दगी की समीक्षा करते हैं, तो यह अन्य सरकारों के मुकाबले अलग दिखाई देती है। इस सरकार ने संविधान की दुहाई देने के बावजूद ऐसे काम किए, जो संविधान की आत्मा के विपरीत होने के साथ-साथ उसे कमज़ोर करने वाले थे। 26 मई, 2014 को सत्ता पर क़ाबिज़ होने से पूर्व 2014 के दिल्ली विधानसभा चुनावों के अवसर पर बी.जे.पी. नेता साध्वी निरंजन ज्योति ने एक जनसभा में समाज को बांटते हुए बयान दिया था कि ’’एक ओर रामज़ादे तो दूसरी तरफ............. है।’’ ये ऐसे जुमले थे जिन्हें कोई भला व्यक्ति बोलना पसंद नहीं करता है, लेकिन बी.जे.पी. नेता और एक साध्वी ने खुलेआम इसे व्यक्त किया, जिस पर पार्टी की ओर से किसी तरह का खेद भी प्रकट नहीं किया गया और न ही यह सबक़ दिया गया कि अलग राय प्रकट करने में मतभेद को शिष्टाचार के दायरे में रखा जाये। हाँ कुछ नेताओं ने इस बयान पर लीपा-पोती करनी शुरू कर दी, जैसे कि इस तरह के अवसरों पर अक्सर होता है।

मुस्लिम विरोधी बयानों का यह रवैया बेलगाम रहा, क्योंकि सरकार ने उन पर किसी तरह की पाबंदी नहीं लगाई। इसके नतीजे में इस तरह के बयानों की झड़ी लग गयी और हर कोई एक दूसरे से आगे निकल जाने की कोशिश करता दिखाई देने लगा। इनमें साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ, गिरिराज सिंह, कमलेश तिवार, डाॅ. सुब्रमन्यन स्वामी और प्रवीण तोगड़िया के नाम उल्लेखनीय हैं एक ओर ’लव जिहाद’ और ’घर वापसी’ जैसे नारों द्वारा देश में साम्प्रदायिक सद्भाव और भाईचारे को तोड़ने की कोशिश की गयी तो दूसरी तरफ प्रवीण तोगड़िया जैसे लोगों ने मुसलमानों को बहुसंख्यक कालोनी में मकान देने से मना करने का फरमान जारी कर दिया। यहाँ तक कि जब कुछ मुसलमानों ने गुजरात की बहुसंख्यक सोसायटी में मकान खरीद लिया तो सताकर उन्हें खाली कराने का गुर भी बताया, लेकिन सरकार की ओर से उनके इस तालिबानी फरमान पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी। बी.जे.पी. के विधायक सुरेश राणा पर मुजफ्फरनगर में उत्तेजक भाषण करने के आरोप में मुकदमा दर्ज हुआ, जिसके कारण साम्प्रदायिक दंगा हुआ, के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुयी। इसके विपरीत उन्हें जेड़ प्लस की सुरक्षा मुहैय्या कराई गयी। इससे पूर्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लम्बी चुप्पी के बाद अपनी ज़बान खोली और कहा कि किसी भी धर्म के खिलाफ हिंसा व घृणा फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई की बात कही, लेकिन समाज को तोड़ने वाली बयानबाजी और सुरेश राणा के ’ईनाम व इकराम’ पर चुप रहे निश्चित तौर पर यह एक विरोधाभास है, जिसके द्वारा ऐसे लोगों का उत्साहवर्धन किया जाता है।

पश्चिम बंगाल के बी.जे.पी. अध्यक्ष दिलीप घोष का यह फरमान कि ’’जो भारत माता की जय न बोले, उसे डेढ़ फिट छोटा कर दिया जाये’’। इतना ही नहीं, बल्कि भटकल (कर्नाटक) से बी.जे.पी. सांसद अनन्त कुमार हेगडे द्वारा पे्रस कांफ्रेंस मंे इस्लाम को आतंकवाद की जड़ बताना, और पार्टी व सरकार का उस पर खामोश रहना शंका पैदा करता है। आगरा में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के राज्य मंत्री राम शंकर कठेरिया के द्वारा मुसलमानों से अन्तिम लड़ाई की खबरें मीडिया में आने के बावजूद बी.जे.पी. की ओर से उन्हें ’क्लीन चिट’ दिया जाना सवाल पैदा करता है। आर॰एस॰एस॰ महासचिव भैयाजी जोशी का बयान ’’तिरंगा नहीं भगवा राष्ट्रीय ध्वज है और राष्ट्रगान ’’जन गण मन’’ नहीं, बल्कि ’’वंदे मातरम’’ है।’’ हिन्दू स्वाभिमान संगठन द्वारा खुले आम असलहों का प्रशिक्षण देना और उसका प्रदर्शन करना ये ऐसी घटनाऐं हैं, जो सरकार की कथनी और करनी को स्पष्ट करती हैं।

रमज़ान (उपवास) के महीने में रोज़गार (रोज़ा रखने वाला) को जबर्दस्ती खाना खिलाकर उसके रोजे को तोड़ा गया। यह सब देश के किसी दूर दराज़ के इलाके में नहीं, बल्कि इसी दिल्ली में महाराष्ट्र सदन मंे मुस्लिम रसोईये के साथ व्यवहार किया गया। मांस पर पाबंदी लगने के साथ ही कुछ बी.जे.पी. के सांसद भी यह कहने लगे कि मांस खाना है तो पाकिस्तान चले जाओ। मद्रास स्थित आई॰आई॰टी॰ के छात्र केन्द्र सरकार द्वारा गोवद्य पर पाबंदी को लेकर व्हाट्स ऐप ग्रुप शेयर कर रहे थे, लेकिन मानव संसाधन मंत्रालय ने इस बर्दाश्त नहीं किया और उस संस्थान के डायरेक्टर को पत्र भेजकर उस पर पाबंदी लगाने का आदेश दिया। इस तरह भावनाओं और विचारों को शेयर करने पर पाबंदी लगाकर सरकार ने अलोकतांत्रिक काम किया। स्वस्थ समालोचना लोकतंत्र की पहचान है और इस तरह की पाबंदी लोकतंत्र के हित में नहीं है।

मांस के नाम पर कानून और प्रशासन को दरकिनार कर खुद से सज़ा देने की एक नयी परम्परा ने जन्म लिया। पुणे में एक मुस्लिम छात्र का कत्ल और दादरी मंे अखलाक़ और झारखण्ड में दो मुस्लिम नौजवानों को मांस के इल्ज़ाम में पीट-पीट कर मार डालने की घटना को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता, क्योंकि इन मामलों में मांस की मौजूदगी को लेकर पुलिस में कोई रपट दर्ज नहीं करायी गयी और न ही कानून को अपना काम करने दिया गया। इसके विपरीत भीड़ ने खुद ही सज़ा देने का फैसला किया, जबकि यह बात जांच से सामने आ गयी कि दादरी मंे अखलाक के घर में मिला मांस गाय का नहीं था और अगर था भी तो क्या भीड़ को कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार है? क्या इससे कानून का राज कायम होता है या फिर सत्ता में बैठे दल की विचारधारा का पता चलता है। यह स्थिति निश्चय ही चिन्ताजनक है। इस तरह की घटनाओं का एक लम्बा सिलसिला है, जो उस सरकार के कार्यकाल में शुरू हुए और जिसके द्वारा समाज में भाईचारा, समता और समानता, जैसे संवैधानिक अधिकारों को खत्म करने की कोशिश की गयी लेकिन सरकार या संघ के ज़िम्मेदारों ने उस पर लगाम लगाने की इच्छा नहीं ज़ाहिर की, जिसके कारण समाज सहिष्णुता से असहिष्णुता की ओर चल पड़ा। स्थिति यह थी कि एक ओर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बयान देते कि मुसलमान आई॰एस॰आई॰एस॰ जैसे आतंकी संगठन में शामिल नहीं हो सकता, क्योंकि उसे देश के संविधान पर पूरा भरोसा है तो दूसरी तरफ उसी सरकार की जांच एजेन्सियों द्वारा मुस्लिम नौजवानों को उठाया जाता रहा।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के द्वारा छेड़ी गयी बहस में ’राष्ट्रवाद’ की एक नयी परिभाषा प्रस्तुत की गयी कि जो ब्राहमणवाद के खिलाफ बोलेगा वह ’देशद्रोह’ का दोषी माना जाएगा। अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने इसका खुलासा दुनिया के सामने यह कहकर किया था कि ’आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में आप या तो हमारा साथ दें या फिर आतंकियों का’। कुछ ऐसा ही माहौल यहाँ के साम्प्रदायिक तत्वों ने बनाया। बाबा राम देव जैसा संत यह कहने लगा कि ’’अगर कानून का डर न होता तो भारत माता की जय न कहने वालों के हज़ारों सिर काट देता।’’ सवाल यह है कि भारत माता की जय न बोलने पर यह अधिकार किसने बाबा रामदेव को दिया। क्या कानून का राज समाप्त हो गया है, जो व्यक्तिगत स्तर पर सज़ा देने की बात की जा रही है। वास्तव में ब्राहमणवाद की यह वही मानसिकता है जिसने समाज के कमज़ोरों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को उनके अधिकार से वंचित रखा और ज्यादतियों को धर्म के माध्यम से बनाए रखा। यही कारण हे कि उन्हें देश का सेक्यूलर संविधान मंजूर नहीं है क्योंकि उसमें सभी नागरिकों को बराबर के अधिकार दिए गए हैं, जबकि उनकी मंशा सामाजिक स्तर पर अन्तर और भेद-भाव पैदा करने की है, ताकि ब्राहमणवाद हावी रहे। असहिष्णुता और भेद-भाव के कारण आज स्थिति यह हो गयी है कि जब एक मुस्लिम नौजवान सोनी टी॰वी॰ के डायरेक्टर से नौकरी के लिए अर्ज़ी देती है तो उसका जवाब होता है कि ’’हम किसी मुसलमान को नौकरी नहीं देते हैं, क्योंकि वह आतंकवादी हो सकता है।’’ यह मानसिकता किस समाज का चित्रण करता है, उसे समझना मुश्किल नहीं है। केन्द्र सरकार ने ताकत के नशे में जिस तरह उत्तराखण्ड की चुनी हुयी सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाया, उस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भत्र्सना की, उस पर कानून मंत्री अरूण जेटली ने सर्वोच्च न्यायालय को निशाना बनाया और कहा कि वह काम करने में रुकावट पैदा कर रहा है, वह यहीं नहीं रुके बल्कि एक अल्प अवधि के बाद दोबारा न्यायापालिका को आड़े हाथों लिया। सवाल यह है कि संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी न्यायापालिका पर भी है। अगर वह इसमें किसी तरह की कोई कमी महसूस करती है तो वह उसकी सुरक्षा सुनिश्चित करेगी। लेकिन वर्तमान सरकार का रवैया और अब तक की कारकर्दगी की समीक्षा से स्पष्ट है कि उसे देश का सेक्यूलर संविधान पसंद नहीं है। संविधान का आधार न्याय है, लेकिन उसके साथ जिस तरह खिलवाड़ हो रहा है, उसका सबूत आतंवाद के मामलों में गिरफ्तार साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर व अन्य 6 आरोपियों को क्लीन चिट देना है। अगर ये लोग निर्दोष हैं तो फिर उन बम विस्फोटों का दोषी कौन है? उल्लेखनीय है कि जब हमेन्त करकरे ने उन भगवा आतंकवादियो को गिरफ्तार किया था तो उसके बाद ही से सीरियल विस्फोटों का सिलसिला रुक गया था। बाद में सरकारी वकील रोहिनी सालियान ने यह रहस्योद्घाटन करके सावधान कर दिया था कि एन॰आई॰ए॰ उनसे इन लोगों पर नरमी बरतने के लिए कह रही है। शायद इसी बुनियाद पर किसी ने लिखा है कि महात्मा गांधी की हत्या की जांच एन॰आई॰ए॰ से करायी जाये। क्या पता कि गोडसे भी निर्दोष साबित हो जाये।

(लेखक आल इण्डिया मिल्ली काउंसिल के महासचिव हैं)


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